श्रीमद्भगवद् गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गुरु की व्याख्या और महत्त्व बताते हुए कहते हैं-
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जनम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तप उच्यते ॥
अर्थात् देव, ब्राह्मण, गुरु और विद्वजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर संबंधी तप कहे जाते हैं। जो मनुष्य को ज्ञान का मार्ग दिखाए और ब्रह्म की ओर ले जाए वही गुरु कहलाता है। जो ब्रह्म की प्राप्ति का ज्ञान दे और साथ ही उसका प्रमाण भी उसका प्रमाण भी दे, वही सच्चा गुरु होता है।
गुरु गीता में तो गुरु को सर्वश्रेष्ठ और यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समकक्ष कहा गया है। लिखा भी है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही महेश का स्वरूप है। यहां तक कि गुरु ही साक्षात परब्रह्म परमेश्वर है । इस प्रकार के श्रेष्ठ गुरु को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूं ।
महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में गुरु की महिमा के बारे में लिखा है-
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जो बिरंचि संकर सम होई ॥
अर्थात् इस संसार रूपी सागर को कोई भी बिना गुरु के मार्ग बताए अपने आप पार नहीं कर सकता। भले ही सृष्टि के सृजनहार ब्रह्माजी अथवा संहारकर्ता शंकरजी किसी के सहायक हों, फिर भी गुरु की कृपा के बिना सफलता नहीं मिल सकती।
महर्षि बाल्मीकि ने भी ‘रामायण’ के अयोध्या कांड में गुरु की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।
गुरु वृत्त्यनुरोधेन न किंचिदपि दुर्लभम् ॥
अर्थात् गुरुजनों की सेवा करने से धन-संपदा, विद्या, पुत्र, सुख और स्वर्ग आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं। तात्पर्य यह है कि यह सब गुरु की कृपा और उनके द्वारा बताए गए मार्ग से सहज ही सुलभ हो जाते हैं।
गुरु के महत्त्व को दर्शाते हुए भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं-
गुरु भक्ति विहीनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम् ।
निष्फलं हि महेशानि! केवलं लोक रंजनं ॥
गुरु भक्तारव्य दहनं दग्ध दुर्गति कल्मषः ।
श्वपचोऽपि पेरेः पूज्यो न विद्वानपि नास्तिकः ॥
धर्मार्थ कामैः किल्वस्य मोक्षस्तस्य करे स्थितिः ।
सर्वार्थे श्री गुरौ देवि ! यस्य भक्तिः स्थिरा सदा ॥
अर्थात् भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं कि हे देवी! कोई मनुष्य बहुत बड़ा तपस्वी, विद्वान, कुलीन सबकुछ ही क्यों न हो, किंतु यदि वह गुरु और गुरु- भक्ति से विहीन हो तो उसका तपस्वी, विद्वान, कुलीन आदि होना व्यर्थ है। अतः उसकी विद्या, कुलीनता और उसकी तपश्चर्या लोकरंजन तो कर सकती है, किंतु उसका कोई भी फल नहीं प्राप्त होता ।
जिस व्यक्ति ने गुरु – भक्ति रूपी अग्नि से अपने पापरूपी काष्ठों को स्वाहा कर दिया है, यदि वह व्यक्ति चांडाल भी है तो संसार में आदर के योग्य है। इसके विपरीत जो व्यक्ति विद्वान होते हुए भी गुरु की भक्ति न करे, वह नास्तिक के समान आदरणीय नहीं होता ।
महाभारत के वनपर्व में भी गुरु महिमा का बखान महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है-
न बिना गुरु संबंध ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः ।
अर्थात् बिना गुरु से संबंध स्थापित किए, गुरु-भक्ति किए ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र में गुरु को ही मनुष्य का सच्चा जन्मदाता कहा है-
स हि विद्यातः तं जनयति तदस्य श्रेष्ठं जन्म।
माता पितरौ तु तु शरीरमेव जनयतः ॥
अर्थात् माता-पिता शरीर को जन्म अवश्य देते हैं, परंतु किसी भी व्यक्ति का सत्य जन्मदाता गुरु ही होता है। गुरु ज्ञान से प्राप्त हुए नए जन्म को ही मनुष्य का श्रेष्ठ जन्म कहा गया है।
इनके अलावा भी भारतीय धर्म, साहित्य और संस्कृति में अनेक ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं, जिनसे गुरु का महत्त्व प्रकट होता है। यहां तक कि वसिष्ठ को गुरु रूप में पाकर श्रीराम ने अष्टावक्र को पाकर योगीराज जनक ने और सांदीपनि को पाकर श्रीकृष्ण-बलराम ने अपने आपको बड़भागी माना। गुरु की महत्ता बनाए रखने के लिए ही भारत में ‘गुरु पूर्णिमा’ का विशेष पर्व भी
मनाया जाता है।