Atithi Dev Bhava

भारतीय सभ्यता-संस्कृति में अतिथि को देवता मानने की प्रथा क्यों है ?

अतिथि कौन ? इस बारे में अतिथि के लक्षणों का वर्णन करते हुए महर्षि शातातप (लघुशाता – 55 ) कहते हैं कि जो सज्जन बिना किसी प्रयोजन, विना बुलाए, किसी भी समय और किसी भी स्थान से घर में उपस्थित हो जाए, उसे अतिथिरूपी देवता समझना चाहिए। अर्थात् जिसके आगमन की पूर्व जानकारी न हो, उसे अतिथि समझना चाहिए ।

वेदों में कहा गया है अतिथि देवो भव अर्थात् अतिथि देवतास्वरूप होता है। इस प्रकार अतिथि की सेवा देवता की पूजा के समान होती है । सूतजी के कथनानुसार अतिथि की सेवा – सत्कार से बढ़कर कोई अन्य महान धर्म नहीं है और अतिथि से महान कोई देवता भी नहीं है ।

महाभारत के उद्योग पर्व में महात्मा विदुर अपने बड़े भ्राता राजा धृतराष्ट्र से कहते हैं-
पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय अनीयापः परिनिर्षिज्य पादौ ।
सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्मसंस्थां ततो दयादन्नमवेक्ष्य धीरः ॥

अर्थात् हे राजन! धैर्यवान पुरुष को चाहिए कि जब भी कोई सज्जन अतिथि के रूप में अपने घर पर पधारे तो सर्वप्रथम उसे आसन दें और जल लाकर उसके पैर धोएं। इसके बाद उसकी कुशलक्षेम पूछकर फिर अपनी स्थिति बताएं। फिर आवश्यकतानुसार अतिथि को भोजन कराएं।

महाभारत के वनपर्व में अतिथि की सेवा करने के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अतिथि को चरण धोने के लिए जल, पैरों की मालिश के लिए तेल, प्रकाश के लिए दीपक, भोजन के लिए अन्न और रहने के लिए स्थान देते हैं, वे कभी यमद्वार नहीं देखते।

आतिथ्य सत्कार के महत्व का वर्णन करते हुए मनुस्मृति में कहा गया है कि गृहस्थ को चाहिए जैसा भोजन वह स्वयं करे, वैसा ही अतिथि को भी दे। अतिथि के सत्कार से सौभाग्य, यश, आयु और सुखों में वृद्धि होती है।

भारतीय सभ्यता संस्कृति में अतिथि सत्कार को अतिथि यज्ञ की संज्ञा दी गई है। अतिथि यज्ञ का संपन्न करना प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति के दैनिक जीवन का प्रमुख अंग माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार जग्धपाप्या यस्यान्न मश्नन्ति अर्थात् अतिथि सत्कार करने वाले के पाप धुल जाते हैं। अथर्ववेद में ही एक अन्य स्थान पर कहा गया है ‘यवा अतिथि पतिरतिथोन् प्रतिपश्यति देवय नंपेक्षते अर्थात् द्वार पर आए हुए अतिथि का स्वागत करना देवताओं को आहुतियां देने के समान है।

अतिथि सत्कार अर्थात अतिथि यज्ञ की गणना पंच महायज्ञों में की जाती है। अतिथि सत्कार में अतिथि का वर्ण, आश्रम, अवस्था और योग्यता नहीं देखी जाती, बल्कि उसे आराध्य समझकर ही उसका स्वागत-सत्कार किया जाता है।

शास्त्रों में कहा गया है कि अतिथि को आसन देने से ब्रह्माजी प्रसन्न होते हैं, अर्घ्यदान करने (हाथ धुलाने) से भगवान शिव संतुष्ट होते हैं, पाद्य देने (पैर धुलाने) से इंद्रादि देवता और भोजन कराने से स्वयं भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार अतिथि का स्वागत-सत्कार करने से सभी देवताओं की तुष्टि होती हैं।

अथर्ववेद में अतिथि सत्कार न करने के दुष्परिणाम पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है-
इष्टं च वा एष पूर्त च गृहाणामश्नाति यः पूर्वोऽतिये रश्नाति ।
एष वा अतिथिर्यच्छो त्रिय स्तस्मात् पूर्वो नाश्नीयात् ॥

अर्थात् जो व्यक्ति अतिथि के भोजन करने से पूर्व भोजन करता है, वह अपने घर का इष्ट सुख और पूर्ण मनोरथ खाता है। तात्पर्य यह है कि वह स्वयं ही अपना नाश करता है। अतिथि श्रोत्रीय, वेद विज्ञान होता है। इसी कारण अतिथि से पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए।

महाभारत के शांति पर्व में भी अतिथि के असत्कार के दुष्परिणाम इस प्रकार बताए गए हैं-
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते ।
स दत्त्वा दुष्कृतम तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥

अर्थात् जिस गृहस्थ व्यक्ति के घर से अतिथि भूखा, प्यासा और निराश होकर वापस जाता है, उस व्यक्ति की पारिवारिक संस्था नष्ट हो जाती है। ऐसा गृहस्थ महादुखों को प्राप्त करता है। इसका कारण यह है कि अतिथि अपने पाप गृहस्थ व्यक्ति को देकर उसके संचित पुण्य स्वयं खींचकर ले जाता है।

महाभारत में भी आतिथ्य सत्कार के अनेक प्रसंग सहज ही मिल जाते हैं। राजा मोरध्वज द्वारा आतिथ्य सत्कार के लिए अपने पुत्र को बलिदान करना, भूखे बहेलिए के लिए कबूतर – कबूतरी द्वारा अपना शरीर दे देना, महारानी कुंती द्वारा ब्राह्मण कुमार के बदले में अपने पुत्र भीम को राक्षस का शिकार बनने के लिए भेजना और राजा शिवि द्वारा कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर से मांस काट-काटकर देना आदि इसी प्रकार के उदाहरण हैं, जो अतिथि सत्कार की महिमा को प्रकट करते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *