प्राण प्रतिष्ठित देवमूर्ति जिस स्थान पर स्थापित होती है, उस स्थान के मध्य बिंदु से चारों ओर कुछ दूरी तक दिव्य शक्ति का आभामंडल रहता है। उस आभामंडल में उसकी आभा शक्ति के सापेक्ष परिक्रमा करने से श्रद्धालु भक्त को सहज ही आध्यात्मिक शक्ति मिल जाती है ।
दैवीय शक्ति के आभामंडल की गति दक्षिणवर्ती होती है। इसी कारण दैवीय शक्ति का तेज और बल प्राप्त करने के लिए भक्त को दाएं हाथ की ओर परिक्रमा करनी चाहिए। इसके विपरीत यांनी बाएं हाथ की ओर देवप्रतिमा की परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के आभामंडल की गति और हमारे अंदर की आंतरिक शक्ति के बीच टकराव होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है
कि हमारा अपना जो तेज है, वह भी नष्ट होने लगता है। अतएव कभी भी देव प्रतिमा की विपरीत परिक्रमा नहीं करनी चाहिए ।
किसी भी देवी-देवता की परिक्रमा करते समय श्रद्धालु भक्तों को परिक्रमा के दौरान उस देवी – देवता के मंत्र का मन-ही-मन जप करते रहना चाहिए। परिक्रमा के दौरान धक्का-मुक्की करना, बातचीत करना, खाना-पीना या हंसना पूर्णतया वर्जित है। देवी-देवताओं को प्रिय तुलसी, रुद्राक्ष अथवा कमलगट्टे की माला धारण करना फलदायक होता है। परिक्रमा पूरी हो जाने के पश्चात देवमूर्ति को साष्टांग प्रणाम करना चाहिए और फिर श्रद्धापूर्वक आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
भगवान श्रीहरि की प्रतिमा की परिक्रमा करने के संबंध में पद्मपुराण में इस प्रकार कहा गया है कि ‘ जी भक्त पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से भगवान श्रीहरि की धीरे-धीरे पग उठाकर परिक्रमा करता है, यह एक एक एग के चलने में एक-एक अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है। श्रद्धालु भक्त जितने पग परिक्रमा करते हुए चलता है, वह उतने सहस्र कल्पों तक भगवान श्रीहरि के
धाम में उनके साथ ही प्रसन्नतापूर्वक निवास करता है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड की परिक्रमा करने से जो पुण्य फल अर्जित होता है, उससे भी करोड़ गुणा अधिक फल भगवान श्रीहरि की परिक्रमा करने से अर्जित होता है।’
देवमूर्ति की जितनी अधिक परिक्रमा की जाती है, उतना ही अधिक लाभ प्राप्त होता है, किंतु फिर भी कुछ देवी-देवताओं की परिक्रमा नियत रूप में ही की जाती है, जैसे भगवान श्रीकृष्ण की तीन परिक्रमा की जाती है और देवी माता कीं केवल एक परिक्रमा की जाती है। सामान्यतः पांच, ग्यारह आदि परिक्रमा करने का विधान है।
अन्य सभी देवी-देवताओं से भिन्न महादेव शिव की परिक्रमा भिन्न प्रकार से की जाती है। शास्त्रों के अनुसार शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का विधान है। इसी कारण भगवान शिव की परिक्रमा कभी भी पूरी नहीं की जाती, बल्कि आधी परिक्रमा करके पुनः लौटकर आधी पूरी की जाती है। कहा जाता है कि भगवान शिव के आभामंडल के तेज की गति दक्षिणावर्त और वामावर्त दोनों ओर होती है।