ग्रहण के दौरान पदार्थों और जलादि में सूक्ष्म कीटाणु एकत्रित होकर उन्हें दूषित कर देते हैं । इसी कारण इनमें कुश डाल दिया जाता है। इन पदार्थों के कीटाणु कुश में जमा हो जाते हैं । इस कुश को ग्रहण के बाद फेंक दिया जाता है । ग्रहणकाल में भोजन करने से सूक्ष्म कीटाणुओं के पेट में जाकर रोग उत्पन्न करने की आशंका बढ़ जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने ग्रहणकाल में भोजन करना वर्जित कहा है और ग्रहण के बाद स्नान करके ही भोजन करना उचित कहा है ।
ग्रहण के दौरान किए गए अपने शोधों में वैज्ञानिक टॉरिंस्टन ने स्पष्ट किया है कि ग्रहणकाल में मनुष्य की पाचन क्षमता अत्यंत कमजोर हो जाती है। इसी कारण इस दौरान किया गया भोजन अपच, अजीर्ण जैसी बहुत-सी शिकायतें उत्पन्न कर सकता है।
भारतीय ज्योतिषविदों के अनुसार सूर्य और चंद्र ग्रहण होने से लगभग दस घंटे पहले ही ग्रहण का कुप्रभाव शुरू हो जाता है। इस काल को सूतक काल कहा जाता है। ग्रहण काल के दौरान भोज्य एवं पेय पदार्थों में तुलसी के पत्ते डाल देने का भी प्रावधान है। तुलसी के पत्तों में विद्युत शक्ति एवं प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है। इसी कारण ग्रहण काल के प्रदूषण और कीटाणु
आदि से रक्षा कर प्राण शक्ति बढ़ाने के लिए तुलसी के पत्तों का प्रयोग किया जाता है ।