Guru Dakshina

गुरु-दक्षिणा की परंपरा क्यों है और इसका क्या महत्त्व है ?

जब गुरु अपने शिष्य को पूरा ज्ञान देकर गुरु-दीक्षा की रीति पूर्ण कर लेता है तो इसके बाद शिष्य गुरु दीक्षा की कृतज्ञता के फलस्वरूप गुरु-दक्षिणा देता है। दक्षिणा का तात्पर्य आहार को पचाने की क्रिया एवं जड़ों का रस पौधे
तक पहुंचाकर उसे विकसित एवं फलित करने वाले उपक्रम से है। आध्यात्मिक दृष्टि से शिष्य को गुरु-दक्षिणा देकर ही शिक्षा का उपयोग करना श्रेयकर होता है।

भारतवर्ष में गुरु-दक्षिणा की परंपरा आदिकाल से ही चली आ रही है। इस बारे में महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य और शिष्य एकलव्य का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

महाभारत के इस प्रसंग के अनुसार एकलव्य नाम का बालक गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए गया। गुरु द्रोणाचार्य ने यह कहकर कि वे केवल राजपुत्रों को ही धनुर्विद्या सिखाते हैं, धनुर्विद्या सिखाने से एकलव्य को स्पष्ट इनकार कर दिया। तब द्रोणाचार्य के उत्तर से निराश होकर एकलव्य अपने घर लौट आया, किंतु उसने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर
रखा था कि वह धनुर्विद्या अवश्य सीखेगा। अंततः अपने संकल्प के अनुसार एकलव्य अपने प्रयासों में जुट गया ।

सर्वप्रथम एकलव्य ने द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाई और उसे अपना गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास आरम्भ कर दिया। द्रोणाचार्य की प्रतिमा का वह गुरु के समान ही सम्मान, पूजन और अर्चन किया करता था । फिर कुछ ही दिनों में अभ्यास करते-करते वह एक कुशल धनुर्धर बन गया ।

एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उन्हें लेकर जंगल में गए। उनके साथ ही उनका एक कुत्ता भी था । जंगल में घूमते-फिरते उनका कुत्ता काफी पीछे रह गया। उसी जंगल में एकलव्य भी रहता था। वह भी उस समय घूमने निकला हुआ था । कुत्ता जंगल में एकलव्य को देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा। तब एकलव्य ने बाण कुछ इस प्रकार चलाए कि कुत्ते का मुंह बाणों से भर गया और उसे चोट भी न लगी। इस तरह कुत्ते का भौंकना बंद हो गया ।

जब कुत्ता घूमता-फिरता द्रोणाचार्य और उनके शिष्यों के पास पहुंचा तो सभी यह देखकर दंग रह गए कि उसका मुख बाणों से भरा हुआ है। द्रोणाचार्य ने कुत्ते के मुख से बाण निकाले तो देखा कि उसे तनिक भी चोट न लगी थी। अब वे समझ गए कि इस जंगल में कोई महान धनुर्धर भी रहता है। दोणाचार्य अपने शिष्य अर्जुन को ही सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे। अतः वे सोच में पड़ गए।

कुत्ते को लेकर द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ उस धनुर्धर की खोज में जुट गए, जिसने बाण चलाकर कुत्ते का मुंह बंद कर दिया था। खोजते खोजते एकलव्य की कुटी पर जा पहुंचे। वहां पर द्रोणाचार्य को अपनी प्रतिमा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । द्रोणाचार्य ने प्रतिमा का रहस्य एकलव्य से पूछा तो उसने बताया, “मैंने मन से आपको अपना गुरु स्वीकार किया है। यही
कारण है कि आपकी प्रतिमा के सम्मुख पूजन-अर्चन करके ही मैं धनुर्विद्या का अभ्यास करता हूं और यह आप स्वयं भी देख सकते हैं कि मैं इस विद्या में कितना पारंगत हो चुका हूं।”

द्रोणाचार्य का अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने का अपना सपना टूटता हुआ प्रतीत हुआ। तब द्रोण ने अर्जुन की राह से एकलव्य नाम के इस शूल को निकालने के लिए युक्ति से काम लिया और एकलव्य से बोले – ” प्रिय एकलव्य ! क्या तुमने मन से मुझे अपना गुरु माना है ?”

“हां गुरुदेव !” एकलव्य सम्मानपूर्वक बोला । “लेकिन एकलव्य ! जब तक तुम अपने गुरु को गुरु-दक्षिणा नहीं दोगे,
तब तक तुम्हारी धनुर्विद्या सुफल नहीं देगी।”
” आप आज्ञा कीजिए गुरुदेव !” एकलव्य आगे बढ़कर गंभीरता से बोला – ” कहिए, गुरु-दक्षिणा में मैं आपको क्या दूं?”
एकलव्य ! यदि तुम गुरु-दक्षिणा देना ही चाहते हो तो मुझे अपने दाएं हाथ का अंगूठा दे दो ।”
“क्याऽऽऽ?” एकलव्य के माथे पर स्वेद कण चमकने लगे और वह आश्चर्य से द्रोणाचार्य का मुख देखने लगा – “यह आपने क्या मांग लिया गुरुदेव ?”

“क्यों, क्या तुम्हें गुरु-दक्षिणा देने में कोई संकोच है ?” एकलव्य ने एक पल सोचा, फिर बोला, “नहीं गुरुदेव !” “तो विलम्ब क्यों कर रहे हो ?” एकलव्य ने तुरंत अपनी पीठ पर लटकी पेटी से खंजर निकाला और अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर सहर्ष द्रोणाचार्य के चरणों में रख दिया इस प्रकार एकलव्य ने गुरु-दक्षिणा में अपना सारा भविष्य ही जैसे द्रोणाचार्य को अर्पित कर दिया और तनिक भी संकोच नहीं किया। वास्तव में यह गुरु-दक्षिणा का ही प्रताप है कि एकलव्य का नाम आज भी महाभारत के
किसी भी पात्र से कम प्रशंसनीय नहीं है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *