गुरु के पास जो श्रेष्ठ ज्ञान होता है, वह अपने शिष्य को प्रदान करने और उस ज्ञान में उसे पूर्णतया पारंगत करने की प्रक्रिया ही गुरु दीक्षा कहलाती है। गुरु-दीक्षा गुरु की असीम कृपा और शिष्य की असीम श्रद्धा के संगम से ही सुलभ होती है।
गुरु गीता में गुरु-दीक्षा के संबंध में लिखा गया है-
गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धयन्ति नान्यथा ।
दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धयन्ति गुरु पुत्रके ॥
अर्थात जिस व्यक्ति के मुख में गुरु मंत्र है, उसके सभी कार्य सहज ही सिद्ध हो जाते हैं । गुरु-दीक्षा के कारण शिष्य सर्वकार्य सिद्धि का मंत्र प्राप्त कर लेता है ।
गुरु-दीक्षा मुख से मंत्र आदि बोलकर, दृष्टि के द्वारा अंतर्मन को जगाकर और स्पर्श के द्वारा कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करके दी जाती है। यह गुरु और शिष्य की समझ-बूझ पर निर्भर करता है कि गुरु अपने शिष्य को किस प्रकार दीक्षा प्रदान करता है। मंत्र द्वारा बोलकर दी गई गुरु-दीक्षा को मांत्रिक दीक्षा, दृष्टि से दी जाने वाली दीक्षा को शांभवी दीक्षा और स्पर्श द्वारा दी जाने वाली
दीक्षा को स्पर्श दीक्षा कहा जाता ।
भारतीय परंपरा के अनुसार सभी शिष्यों और साधकों के लिए गुरु-दीक्षा एक अनिवार्य कर्म है। गुरु-दीक्षा के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त करना संभव नहीं है।
गुरु-दीक्षा एक विज्ञानसम्मत परिपाटी भी है। वास्तविकता यह है कि संसार का कोई भी ज्ञान बिना गुरु द्वारा बताए प्राप्त नहीं किया जा सकता। तभी तो आज भी विश्वविद्यालय अपने छात्रों को उच्च शिक्षा की डिग्री देते समय दीक्षांत समारोह का आयोजन करते हैं।