दिव्य गुण, धर्म और स्वभाव से परिपूर्ण स्वरूप के स्वामी देवी-देवता कहलाते हैं। सामान्यतः ये देवी-देवता सत्य, धर्म और सद्भाव का पालन करने वाले होते हैं, किंतु परिस्थितिवश यदि इनका स्वभाव कुछ परिवर्तित हो जाए तो फिर ये ऐसा अपने कर्तव्य और वचन से बंधे होने के कारण करते हैं । इनमें अपने भक्तों, श्रद्धालुओं और धार्मिक कार्यों में संलग्न रहने वाले जनों को
वरदान देने की दिव्य क्षमता होती है ।
सामान्यतः लोगों की धारणा यह है कि 33 कोटि देवी-देवता हैं। यहां पर ‘कोटि ‘ शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं । एक अर्थ के अनुसार ‘कोटि’ से तात्पर्य करोड़ (100 लाख) से है, जबकि दूसरे अर्थ के अनुसार कोटि से तात्पर्य श्रेणी से है।
बृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय तीन में याज्ञवल्क्य का कथन है कि देव 33. होते हैं। इन देवताओं में 1 प्रजापति, 1 देवराज इंद्र, 12 आदित्य, 11 रुद्र और 8 वसु सम्मिलित हैं । प्रकृति रूप यज्ञमय सम्पूर्ण जीवन ही ब्रह्म है। मेघ इंद्र है। संवत्सर के 12 मास के 12 सूर्यों को ही आदित्य कहा गया है। 5 ज्ञानेंद्रियां, 5 कर्मेंद्रियां और 1 मन (आत्मा) ये कुल 11 रुद्र हैं। अग्नि, पृथ्वी,
वायु, आकाश, आदित्य, द्यौ, चंद्रमा और नक्षत्र ये 8 वसु हैं ।
ऋग्वेद के अनुसार देवी-देवताओं के बारे में इस प्रकार कहा गया है-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
अर्थात् एक सत्स्वरूप परमेश्वर को विद्वजन अनेक प्रकार से और अनेक नामों से संबोधित करते हैं। उसी सत्स्वरूप परमेश्वर की वे अग्नि, यम, मातरिश्वा, इंद्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान आदि नामों से वंदना करते हैं ।
वास्तव में एक ही परम तत्त्व को, एक ही अनंत-असीम आदि शक्ति को भिन्न-भिन्न स्वरूपों में मानकर उसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि दिव्य शक्ति एक है और उनके स्वरूपों की अवधारणा अनेक है।