योग चूड़ामणी उपनिषद में कहा गया है –
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकं विंशति ।
एतत् संख्यान्तितं मंत्र जीवो जपति सर्वदा ॥
अर्थात एक व्यक्ति दिन रात के 24 घंटों में 21,600 बार शवास लेता है। 24 घंटे में से 12 घंटे दिनचर्या में व्यतीत हो जाते हैं, तब शीर्ष 12 घंटे परमात्मा की जप के लिए होते हैं। इन 12 घंटों में व्यक्ति 10,800 शवासें लेता है। सामान्यत कोई भी व्यक्ति इतना समय जप के लिए नहीं दे पाता। इसी कारण इस संख्या में से दो जीरो ( अंतिम ) हटाकर शेष संख्या 108 शवासों में परमात्मा का जप किया जाता है। यही कारण है कि माला में 108 मनके होते हैं।
दूसरी मान्यता के अनुसार सूर्य एक वर्ष में 2,16,000 कलाएं बदलता है। छ: मास सूर्य उत्तरायन में और छः मास दक्षिणायन में रहता है। इस प्रकार उत्तरायन और दक्षिणायन के लिए सूर्य की कलाएं 1,08,000 होती हैं। प्रत्येक हजार कला के लिए एक बार परमात्मा का जप करने के आधार पर 108 बार जप करना पड़ता है। इसी कारण माला में 108 मनके होते हैं।
तीसरी मान्यता के अनुसार ज्योतिषशास्त्र ने अपनी सुविधा के आधार पर ब्रह्मांड को 12 भागों में बांटा है। इन बारह भागों को ‘राशि’ नाम दिया गया है। ज्योतिषशास्त्र में मुख्यतः नौ ग्रह (नवग्रह) माने जाते हैं। 12 राशियों और 9 ग्रहों के गुणनफल से प्राप्त संख्या 108 संपूर्ण सृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है और संपूर्ण सृष्टि का संचालक परमात्मा है। इस प्रकार 108 बार परमात्मा का
जप करने से संपूर्ण सृष्टि की समस्त शक्तियों का जप होने के कारण ही माला में 108 मनके बनाए गए।
चौथी मान्यता के अनुसार भारतीय ऋषि-मुनियों ने 27 नक्षत्रों की खोज की। इनमें से प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार 27 नक्षत्रों के कुल 108 चरण हुए। इनके आधार पर भी माला में 108 मनके निर्धारित किए गए हैं।
शिव पुराण के श्लोक-29 में कहा गया है-
अष्टोत्तरशतं माला तत्र स्यावृत्तमोत्तमा ।
शतसंख्योत्तमा माला पचशद्भिस्तु मध्यमा ॥
अर्थात् 108 दानों की माला सर्वश्रेष्ठ, 100 दानों की माला श्रेष्ठ और 50 दानों की माला मध्यम होती है। माला जपने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए शिवपुराण के श्लोक- 28 में कहा गया है कि माला का अंगूठे से जप करने पर मोक्ष मिलता है, तर्जनी
से जप करने पर शत्रु का नाश होता है, मध्यमा से जप करने पर धन-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अनामिका से जप करने पर मानसिक शांति मिलती है।
माला के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए अंगिरः स्मृति में कहा गया है-
विना दमैश्चयकृत्यं सच्चदानं विनोदकम् ।
असंख्यता तु यजप्तं तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ॥
अर्थात् बिना कुश के अनुष्ठान, बिना जल-स्पर्श के दान और बिना माला के संख्याहीन जप औचित्यहीन होता है। कर्ता को इनका कोई फल प्राप्त नहीं होता ।