शास्त्रकारों के अनुसार मननात् त्रायते इति मंत्रः अर्थात् मनन करने पर जो त्राण (रक्षा) करे, वही मंत्र है। वास्तव में मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मानव की सुषुप्त शक्तियों और चेतना को सक्रिय कर देता है।
मंत्र में अथाह, असीमित और चमत्कारी शक्तियां छुपी होती हैं। मंत्रों के प्रभाव से देवी-देवताओं की अद्भुत शक्तियों का सहज ही अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। शास्त्रों में कहा भी गया है-मंत्राधीनंच दैवताम् अर्थात् देवता मंत्रों के अधीन होते हैं।
मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न शब्द- शक्ति संकल्प और श्रद्धा-बल से द्विगुणित होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना से संपर्क करती है और तब अंतरंग पिंड एवं बहिरंग ब्रह्मांड एक अद्भुत शक्ति प्रवाह उत्पन्न करते हैं। इस अद्भुत शक्ति प्रवाह के फलस्वरूप ही मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव मंत्रोच्चारण करने वाले को सिद्धियां प्रदान कर देता है। वरदान और शाप मंत्र
शक्ति द्वारा अर्जित सिद्धियों के ही परिणाम हैं।
मंत्र तभी अपना पूरा फल देते हैं, जबकि उनका जप विधि-विधानपूर्वक किया जाए। माला द्वारा जप करने से पूर्व उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर लेनी अत्यंत आवश्यक होती है, अन्यथा मंत्र जप का फल निष्फल हो जाता है। इस बारे में भारद्वाज स्मृति में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है-
अप्रतिष्ठितमालाया सा जपे विफला स्मृता ।
तस्मात् प्रतिष्ठा कर्तव्या जपस्य फलमिच्छता ॥
मंत्र कई श्रेणियों के होते हैं । कुछ मंत्र प्राणियों की सामान्य आधि-व्याधियों को दूर करने के लिए सिद्ध किए जाते हैं और कुछ मंत्र विशेष प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए जपे जाते हैं। वैदिक और यज्ञीय मंत्रों में इतनी शक्ति होती है कि उनके प्रभाव से अग्नि, पवन, जल और सूर्य देवता को ही नहीं, बल्कि देवराज इंद्र को भी मनुष्य के समक्ष आना पड़ता है।
मंत्र शक्ति के उदाहरण हेतु यहां पर एक कथा प्रस्तुत है – प्राचीन काल में एक अत्यंत प्रतापी राजा थे। उनका नाम था पृथु
अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया। अपने संकल्प के महाराज पृथु ने सौ अनुसार उन्होंने 99 यज्ञ विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न कर दिए। अब महाराज पृथु अत्यंत प्रभावशाली और प्रतापवान हो गए थे।
देवताओं के राजा इंद्र महाराज पृथु के प्रताप से भयभीत हो उठे। यदि महाराज पृथु का सौवां अश्वमेध यज्ञ भी सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया तो वे देवराज इंद्र से भी अधिक शक्तिशाली हो जाने वाले थे। अब इंद्र को भय सताने लगा कि कहीं अधिक शक्तिशाली होकर महाराज पृथु देवलोक के स्वामी ही न बन बैठें। देवलोक का सिंहासन जाते देख देवराज ने उनके सौवें
अश्वमेध यज्ञ में एक प्रपंच रचा और वेश बदलकर यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया । पृथु के पुत्र ने बलपूर्वक इंद्र से यज्ञ का घोड़ा तो छीन लिया, किंतु जब इस घटना के बारे में पृथु को पता चला तो उन्होंने देवराज इंद्र को मजा चखाने का निश्चय किया ।
महाराज पृथु ने तब क्रोधावेश में आकर अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया और इंद्र का नाश करने की घोषणा की। जब ऋषि-मुनियों को महाराज पृथु की इस घोषणा का पता चला तो वे तुरंत उनके पास पहुंचे और पृथु से बोले- ‘हे राजन! आपके शक्तिशाली बाण से तो देवराज इंद्र ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देवलोक का सर्वनाश हो जाएगा। यदि आप इंद्र को मारने के ही अभिलाषी हैं तो हम आपके मनोरथ की सिद्धि का उपाय कर देंगे। हम सारपूर्ण मंत्रों द्वारा अभिमानी इंद्र को स्वर्गलोक से खींचकर यज्ञ की अग्नि में होम कर देंगे ।”
ऋषियों की बात सुनकर राजा पृथु का क्रोध कुछ कम हुआ और वे बोले – ” मैं आप लोगों की बात से संतुष्ट हूं और जैसा आप चाहते हैं, उसे स्वीकार करता हूं, किंतु मेरी प्रत्यंचा पर चढ़ा बाण तभी उतरेगा, जबकि आपके यज्ञीय मंत्रों से खिंचकर अधर्मी इंद्र मेरी दृष्टि के सामने ही यज्ञकुंड की अग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा।”
राजा पृथु की इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए ऋषिगण हाथ में स्रुवा उठाकर मंत्रोच्चार करने और यज्ञकुंड में आहुति देने लगे । यज्ञीय मंत्रों के प्रताप से देवराज इंद्र स्वर्गलोक से खिंचकर यज्ञकुंड की ओर आने लगा। जब वह यज्ञकुंड में गिरकर स्वाहा होने ही वाला था, उसी समय वहां पर ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने उपस्थित ऋषि-मुनियों से अनुरोध करके इंद्र को यज्ञकुंड में
जलकर भस्म होने से बचा लिया।
इसके बाद इंद्र ने महाराज पृथु से क्षमा मांगी। सभी ऋषि-मुनियों और ब्रह्माजी के अनुरोध पर महाराज पृथु ने तब देवराज को क्षमा कर दिया। इस प्रकार देव- शक्तियों पर मंत्र – शक्ति और श्रेष्ठता की विजय हुई।