सुर, लय, ताल और राग-रागिनी आदि का प्रादुर्भाव देवी सरस्वती से ही हुआ है। ये संगीतशास्त्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। सात सुरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है। इसी कारण ये स्वरात्मिका भी कहलाती हैं। सप्तविध सुरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती हुआ।
देवी भागवत पुराण के अनुसार देवी सरस्वती को सती, सावित्री, गायत्री, लक्ष्मी और अंबिका के नाम से भी पुकारा जाता है। प्राचीन धर्मग्रंथों में इन्हें शारदा, सर्वमंगला, विद्याधरी, वीणापाणि, वाणी, वाग्देवी और भारती जैसे नामों से संबोधित किया गया है। ये सभी भ्रांतियों को नष्ट करने वाली और सत्य का बोध कराने वाली हैं। इनकी उपासना से सभी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो
जाती हैं।
सरस्वती कमल पर विराजमान रहती हैं। इनके हाथों में वीणा, कमल और पुस्तक है। इनका वाहन हंस है। साम-संगीत के सभी विधि-विधान एकमात्र वीणा में सन्निहित हैं। वीणावादन शरीर को स्थैर्य प्रदान करता है। कमल गतिशीलता का प्रतीक है और निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इनके हाथ में थमी पुस्तक सब कुछ जान-समझ लेने की प्रेरणा देती है। इनका वाहन हंस नीर-क्षीर गुणों को अपने में समाहित करने को प्रेरित करता है।
सरस्वती के सभी अंग श्वेताभ हैं। इसी कारण ये सत्त्वगुणी प्रतिभा स्वरूपा हैं। इस गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट तत्त्व है। देवी भागवत के अनुसार ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी सरस्वती की पूजा करते हैं। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ‘बसंत पंचमी’ का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर विधि-विधान के अनुसार मां सरस्वती का पूजन-अर्चन किया जाता है।
एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा- “सरस्वती ! तुम किसी योग्य व्यक्ति के मुख में कवित्व शक्ति के रूप में निवास करो।”
ब्रह्माजी की आज्ञानुसार सरस्वती किसी योग्य व्यक्ति की खोज में निकल पड़ीं। गंगा के तट पर क्रौंच पक्षियों का जोड़ा किल्लोल-क्रीड़ा में मग्न था। इसी बीच एक शिकारी शिकार की खोज में उधर ही आ निकला। क्रौंच पक्षियों को किलोल-क्रीड़ा करते देखकर उसने उन पर बाण चला दिया।
शिकारी के बाण से त्रस्त होकर जोड़े में से एक पक्षी छटपटाकर नीचे गिर पड़ा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। अपने जोड़े के एक पक्षी को मृत देख दूसरा पक्षी कातर स्वर में चीख पड़ा। यह घटना महर्षि बाल्मीकि देख रहे थे। उस समय तक महर्षि एक सामान्य व्यक्ति ही थे। क्रौंच पक्षी की कातरता महर्षि के हृदय में पीड़ा के भाव भर दिए। उनके कंठ से एक श्लोक फूट पड़ा-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः ।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकवधी काममोहितम् ॥
सरस्वती ने महर्षि बाल्मीकि के कंठ से उमड़ती इस आर्द्र पीड़ा को अनुभूत किया और उन्हें ही योग्य पात्र समझकर उनके मुख में कवित्व शक्ति के रूप में निवास किया। सरस्वती की कृपा से ही महर्षि बाल्मीकि आदिकवि’ के नाम से विश्व में विख्यात हुए।
देवी सरस्वती पात्रों की योग्यता में वृद्धि करती हैं तो कुपात्रों और राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों की बुद्धि का हरण भी कर लेती हैं। इस बारे में रामायण के एक प्रसंग का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा।
जब रावण, कुंभकर्ण और विभीषण ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न कर लिया तो ब्रह्माजी ने उन्हें दर्शन दिए और मनोवांछित वर मांगने को कहा।
रावण को उसकी इच्छानुसार वर देने के पश्चात् ब्रह्माजी कुंभकर्ण के पास पहुंचे। कुंभकर्ण एक महाभयंकर राक्षस था । ब्रह्माजी इस बात को भली प्रकार जानते थे कि यदि कुंभकर्ण कुछ भी दुष्कर्म न करे और केवल शांत’ रहकर भोजन करता रहे तो शीघ्र ही यह संसार उजड़ जाएगा। ऐसे दुष्ट को यदि कुछ अनुपम शक्ति और मिल जाए तो वह सृष्टि में प्रलयंकारी उत्पात मचा सकता है।
ब्रह्माजी अच्छी तरह जानते थे कि कुंभकर्ण वरदान के रूप में क्या मांगने वाला है। वे उस दुष्ट को वह वर नहीं देना चाहते थे । यही सोचकर उन्होंने सरस्वती को कुंभकर्ण की जिह्वा पर सवार होकर बुद्धि भ्रमित करने को कहा ।
ब्रह्माजी की आज्ञानुसार सरस्वती ने कुंभकर्ण की बुद्धि भ्रमित कर दी तब कुंभकर्ण ने वर मांगा–‘“हे देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मुझे छः मास तक सोने और एक दिन जागने का वर दीजिए।”
ब्रह्माजी ने ‘तथास्तु’ कहकर वर दे दिया। तब कुंभकर्ण को ध्यान आया कि वह तो एक दिन सोने और छः मास जागने का वर मांगने जा रहा था, मगर अब क्या हो सकता था ।
इस प्रकार अयोग्य और राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों की बुद्धि का हरण करके सरस्वती सृष्टि को उनके प्रकोप से बचाती रही हैं। देवी सरस्वती की महत्ता को प्रकट करने वाले अनेक प्रसंग धर्म शास्त्रों में भरे पड़े हैं।