धर्म शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन पंचमहायज्ञ अनिवार्य रूप से करने के निर्देश दिए गए हैं। पंच महायज्ञ के बारे में मनु महाराज ने मनु स्मृति में इस प्रकार कहा है-
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो दैवो बलिर्भीतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम् ॥
अर्थात् पंचमहायज्ञों में अध्यापन (वेद पढ़ाना) ब्रह्मयज्ञ, तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध आदि, पितृयज्ञ, हवन आदि देवयज्ञ, पंचबलि आदि भूतयज्ञ और अतिथियों का पूजन-सत्कार आदि अतिथि यज्ञ या नृयज्ञ कहलाते हैं ।
पंचमहायज्ञों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
ब्रह्मयज्ञ से तात्पर्य वेदों एवं धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन से है। धर्मग्रंथों का अधिक-से-अधिक और नियमित अध्ययन करने से ज्ञान में वृद्धि तो होती ही है, साथ ही मन में पवित्र विचारों का प्रवाह भी त्वरित गति से होने लगता है । इसी कारण संध्या-वंदन के बाद धर्म-ग्रंथों के नियमित पठन-पाठन का विधान बनाया गया है । गायत्री मंत्र का जप करने से भी ब्रह्मयज्ञ पूर्ण हो जाता है।
पितृयज्ञ से तात्पर्य पितरों का पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध आदि से है। पितृयज्ञ के बारे में याज्ञवल्क्य स्मृति में इस प्रकार कहा गया है कि पुत्रों द्वारा अर्पित किए गए अन्न-जल आदि श्राद्धीय द्रव्यों से पितर पूर्ण तृप्त होते हैं और प्रसन्न होकर वे पितृयज्ञ करने वालों को दीर्घायु, संतति एवं विद्या में वृद्धि, सुख, सम्पत्ति, स्वर्ग और मोक्ष आदि की प्राप्ति का वर भी देते हैं।
देवयज्ञ से तात्पर्य पूजन, हवन और होम आदि से है । रोग, शोक और दुख- -विकार हरने वाले देवता ही होते हैं । इसी कारण नियमित रूप से देवों की अभ्यर्थना करके यानी देवयज्ञ द्वारा विभिन्न प्रकार के विकारों से मुक्ति पाई जा सकती है। हवन का एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि इससे वातावरण की अशुद्धियां नष्ट हो जाती हैं और स्वास्थ्य लाभ मिलता है।
भूतयज्ञ से तात्पर्य अपने लिए निर्धारित किए गए अन्न में से कुछ भाग अन्य प्राणियों के कल्याण हेतु देना है । मनुस्मृति के अनुसार कुत्ता, पतित, चांडाल, कुष्ठी और यक्ष्मा आदि पापजन्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को और कौओं, चींटियों तथा कीड़े-मकोड़े आदि के लिए दिए जाने वाले अन्न भाग को स्वच्छ भूमि पर रख देना चाहिए । गो-ग्रास देना अत्यंत पुण्यकारी माना गया है ।
अतिथियज्ञ अथवा नृयज्ञ से तात्पर्य अतिथि का सप्रेम, ससम्मान सत्कार और सेवा करने से है। शास्त्रों में अतिथि को देवता के सदृशं माना गया है। अतः गृहस्थ स्वयं भोजन करने से पूर्व अतिथि को भोजन कराना चाहिए । महाभारत के शांति पर्व में अतिथि का सम्मानपूर्ण आतिथ्य न करने वाले गृहस्थी के बारे में कहा गया है कि जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश, हताश और भूखा-प्यासा लौट जाता है, उसकी गृहस्थी नष्ट हो जाती है। ऐसे गृहस्थी को अनेक दुखों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि निराश अतिथि अपने पाप गृहस्थी को देकर उसके संचित पुण्य स्वयं खींच ले जाता है । अत: अतिथि को कभी भी दुत्कारकर नहीं लौटाना चाहिए ।
प्रत्येक गृहस्थी को प्रतिदिन नियत समय पर ये पंचमहायज्ञ करने का निर्देश देते हुए विश्वामित्र स्मृति में महर्षि विश्वामित्र इस प्रकार लिखते हैं-
नित्यकर्माखिलं यस्तु उक्तकाले समाचरेत् ।
जित्वा सा सकलांल्लोकान्तेविष्णुपरं व्रजेत् ॥
अर्थात् प्रत्येक गृहस्थी को अपने नित्यकर्म प्रतिदिन नियत समय पर करने चाहिए। जो गृहस्थ ऐसा करता है, वह समस्त लोकों को पार करके सर्वोत्तम विष्णुलोक को प्राप्त कर लेता है । अतएव सभी गृहस्थों को श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रतिदिन नियत समय पर पंचमहायज्ञ करने चाहिए, तभी वह पूर्ण रूप से सुखी, संपन्न और शांत रह सकता है।