सृष्टि में सूर्यदेव को जीवन ऊर्जा का स्रोत माना गया है और पृथ्वी पर अग्नि को सूर्यदेव का परिवर्तित रूप कहा गया है। इसी कारण जीवन प्रदान करने वाली जीवन- ऊर्जा को केंद्रीभूत करने के लिए दीप में प्रज्ज्वलित होने वाली अग्नि के रूप में सूर्यदेव को देव पूजन आदि में अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाता है।
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शारीरिक संरचना के पांच प्रमुख तत्त्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) में अग्नि का भी प्रमुख स्थान है । ऐसा कहा जाता है कि अग्निदेव की उपस्थिति में उन्हें साक्षी मानकर किए गए कार्यों में सफलता अवश्य मिलती है और प्रज्वलित दीप में अग्निदेव वास करते ही हैं। इस प्रकार प्रभु की पूजा-अर्चना करते समय और अपनी भक्ति को सफल करने के लिए दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं ।
दीप प्रज्ज्वलित करने के बारे में एक मत यह भी है कि दीपक से प्रकाश उत्पन्न होता है और प्रकाश ज्ञान का दूसरा रूप है। ईश्वर ज्ञान और प्रकाश के रूप में ही सर्वत्र विद्यमान है। अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने और ज्ञानरूपी प्रकाश को पाने के लिए पूजा-पाठ और आरती आदि करते समय दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है ।
प्रकाशरूपी परमात्मा को साक्षात मानकर ‘ऋग्वेद’ में इस प्रकार प्रार्थना की गई है-
अयं कविरकविषु प्रचेता मर्त्येष्वाग्निरमृतो निधायि ।
स मा नो अत्र जुहुरः सहस्वः सदा त्वे सुमनसः स्याम ॥
अर्थात् हे प्रकाशरूपी ‘परमपिता परमात्मा ! तुम अकवियों में कवि और मृत्यों में अमृत बनकर वास करते हो। तुमसे हमारा जीवन दुखों को न प्राप्त करे और हम सदा सुखी रहें । धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि दीप सम संख्या में जलाने से ऊर्जा संवहन
निष्क्रिय हो जाता है । अत: विषम संख्या में ही दीप प्रज्ज्वलित करने चाहिए, ताकि सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता रहे। इसी कारण धार्मिक कार्यों या अनुष्ठान आदि में विषम संख्या में ही दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं ।
संकल्प और अनुष्ठान के आधार पर भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं, जैसे नवरात्र में पूरे नौ दिन और अखंड रामायण पाठ में चौबीस घंटे दीप जलाए जाते हैं। किसी कार्य विशेष को पूरा करने अथवा उसके पूरा होने का संकल्प लेकर भी कोई व्यक्ति अखंड ज्योति जलाने की प्रतिज्ञा करता है। जब तक उसका कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक अखंड ज्योति जलती रहती है।
ऐसी संकल्पित ज्योति, जब तक संकल्प पूरा न हो, बुझाना अत्यंत अनिष्टकारी माना जाता है। अतः या तो ऐसा कठोर संकल्प न लें और यदि लें तो उसे अवश्य पूरा करना चाहिए ।
दीपक की ऊर्ध्वाकारं जलती लौ के बारे में मान्यता है कि लौ पूर्व दिशा की ओर रखने पर आयु में वृद्धि, पश्चिम की ओर रखने पर क्लेश, उत्तर की ओर रखने पर स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता और दक्षिण की ओर लौ रखने पर हानि के योग बनते हैं ।