देवताओं के पूजन-अर्चन में मन की पवित्रता का ही नहीं, बल्कि शरीर की पवित्रता का भी विशेष महत्त्व है । शरीर और मन दोनों की पवित्रता से ही वास्तविक स्नान पूर्ण होता है । शरीर के बाह्य मल को जल से तिरोहित करने पर शरीर स्वच्छ हो जाता है और इसके साथ ही मन में व्याप्त कुविचारों का त्याग करने से मलिन मन उज्ज्वल हो जाता है ।
कूर्मपुराण में स्नान के बारे में कहा गया है कि दृष्ट और अदृष्ट फल प्रदान करने वाला प्रातः कालीन शुभ स्नान प्रशंसनीय है । प्रतिदिन प्रातः काल स्नान करने में ही ऋषियों का ऋषित्व है । सुषुप्त अवस्था में व्यक्ति के मुख से निरंतर लार बहती रहती है अतः प्रात: स्नान किए बिना कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। प्रात:कालीन स्नान करने से निस्संदेह अलक्ष्मी, कालकर्णी, बुरे
स्वप्न और बुरे विचार तथा अन्य पाप नष्ट हो जाते हैं । स्नान किए बिना मनुष्य को कोई भी कर्म करने का निर्देश नहीं दिया गया । अतः पूजा आदि करने से पहले स्नान अवश्य कर लेना चाहिए ।
स्कंदपुराण के काशीखंड में स्नान करने की प्रक्रिया को और अधिक स्पष्ट करके समझाया गया है। इसमें कहा गया है-
न जलाप्लुतदेहस्य स्नानमित्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धनोमलः ॥
अर्थात् शरीर को जल में डुबो लेने को ही स्नान करना नहीं कहा जाता । जिस मनुष्य ने दमरूपी तीर्थ में स्नान किया अर्थात् मन और इंद्रियों को अपने वश में कर लिया, वास्तव में उसने ही स्नान किया । जिस मनुष्य ने अपने मन को धो डाला, वही पवित्र है ।
मनुष्य किस प्रकार स्वयं को पवित्र करे, इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद गीता में कहा है कि भगवान के भक्तों में पवित्रता की पराकाष्ठा होती है। उनके तन, मन, बुद्धि, इंद्रिय और आचरण इतने पवित्र होते हैं कि उनके दर्शन करने, स्पर्श करने और उनसे वार्तालाप करने से ही अन्य लोग भी पवित्र हो जाते हैं। ऐसे पवित्रतम् भक्तजन जहां पर निवास करते हैं,
वहां का स्थान, वायुमंडल और जल आदि सभी पवित्र हो जाते हैं।
धर्म शास्त्रकार यज्ञ, पूजन हवन आदि के लिए स्नान का निर्देश देते हुए कहते हैं कि मनुष्य का नौ द्वार वाला यह शरीर अत्यंत मलिन है। इन नौ द्वारों से प्रतिदिन मल निष्कासित होता रहता है। इसी कारण शरीर दूषित हो जाता है। यह मल स्नान से दूर हो जाता है और शरीर में निर्मलता आ जाती है। इसी कारण बिना स्नान कर पवित्र हुए देवपूजन, हवन और जप आदि नहीं करना
चाहिए।
भविष्य पुराण के उत्तराखंड में स्नान की महत्ता को इस प्रकार प्रकट किया गया है-
नैर्मल्य भावशुद्धिश्च विना स्नानं न युज्यते ।
तस्मात् कायविशुद्धयर्थ स्नानमादौ विधीयते ॥
अनुद्धतैरुद्धतैर्वा जलैः स्नानं समाचरेत् ।
अर्थात् बिना स्नान किए चित्त की निर्मलता और भावों में शुद्धि नहीं आती । इसी कारण शरीर की शुद्धि के लिए सर्वप्रथम स्नान करने का ही विधान बनाया गया है। नदी आदि के जल में प्रवेश करके और कुएं आदि के जल को बाहर निकालकर स्नान करना चाहिए।
महर्षि विश्वामित्र स्नान के बहुत से लाभों का वर्णन करते हुए विश्वामित्र स्मृति में इस प्रकार कहते हैं-
गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्व बलं च शौचम् ।
आयुष्यमारोग्यम् लोलुपत्वं दुःस्वप्ननाशं च तपश्च मेधा ॥
अर्थात् प्रतिदिन प्रातःकाल विधिपूर्वक स्नान करने वाले मनुष्य को रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयु, स्वास्थ्य, निर्लोभता, तप और प्रखर बुद्धि की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही उसके दुःस्वप्नों का नाश होता है।
देवी भागवत में सभी कर्मों का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए स्नान को अत्यंत आवश्यक कहा है। ‘देवी भागवत’ के अनुसार
अस्नातस्य क्रियाः सर्वा भवन्ति विफला यतः ।
तस्मात्प्रातश्चरेत्स्नानं नित्यमेव दिने दिने ।
अर्थात् प्रातःकाल स्नान न करने वाले मनुष्य के दिन भर के सभी कर्म फलहीन हो जाते हैं। अत: प्रतिदिन प्रातःकाल अवश्य स्नान करना चाहिए।