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पूजा से क्या तात्पर्य है और भगवान किस प्रकार की पूजा से प्रसन्न होते हैं ?

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः अर्थात् अपने अच्छे कर्म से मनुष्य भगवान की पूजा करके मुक्ति अथवा परम आनंद को प्राप्त करता है ।

अपने अंतर्मन की गहराइयों से अपने इष्टदेव के प्रति समर्पित होकर उसका स्मरण करना और निर्धारित पूजा सामग्री व विधि-विधानपूर्वक स्मरण करते हुए इसका उपयोग करना पूजा कहलाता है। पूजा करने वाला व्यक्ति अपने मन के सभी वैर, लोभ, अहंकार आदि दुर्भावों को त्यागकर सम्पूर्ण समर्पण के साथ पूजा-अर्चना करता है तो उसके मन को एक असीम शांति
मिलती है। उसके रोग-विकार सहज ही दूर हो जाते हैं।

महर्षि वेदव्यासमहाभारत‘ के अनुशासन पर्व में भगवान के पूजन-अर्चन के महत्त्व को प्रकट करते हुए लिखते हैं-
तमेव चार्चयन् नित्यं भक्त्या पुरुषम्व्ययम् ।
ध्यायन् स्तुवन्नमस्यश्च यजमान स्तमेव च ॥
अनादि निधनं विष्णुं स्वर्गलोग महेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन् नित्यं सर्वदुःखांतिगो भवेत् ॥

अर्थात् जो मनुष्य उस अविनाशी परम पुरुष ( भगवान श्री हरि) का सदैव श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजन-अर्चन करता है और स्तवन व नमस्कारपूर्वक उसकी उपासना करता है, वह भक्त उस अनादि, अनंत, सभी लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष परमपिता परमात्मा की नित्य स्तुति करता हुआ सभी दुखों से पार हो जाता है यानी उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।

प्रभु की पूजा-अर्चना करने वाले अर्चना करने वाले सत्पुरुष को प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में शयन त्याग कर देना चाहिए। इसके बाद नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ईश वंदना करनी चाहिए। ऋग्वेद में भी ऐसा ही कहा गया है-
ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः ।
अस्माभिरु नू प्रतिचक्ष्यामूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यन् ॥

अर्थात् जो मनुष्य उषाकाल से पूर्व (ब्रह्ममुहूर्त में ) उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं, वे धर्म का आचरण करने वाले और बुद्धिमान होते हैं। जो स्त्री-पुरुष ईश्वर का ध्यान करके प्रेमपूर्वक संवाद ‘करते हैं, वे अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त करते हैं ।

पूजा-अर्चना में भगवान को पुष्प अर्पित किए जाते हैं, किंतु परमात्मा मनुष्य के गुणरूपी पुष्पों के अर्पण से अधिक प्रसन्न होते हैं। पद्मपुराण बताया गया है कि परमात्मा को मनुष्य के गुण रूपी आठ पुष्प अधिक प्रिय हैं। वे आठ पुष्प इस प्रकार हैं- पहला पुष्प अहिंसा, दूसरा पुष्प इंद्रिय निग्रह, तीसरा पुण्य प्राणी मात्र पर दया भाव दिखाना, चौथा पुष्प क्षमा, भाव बनाए रेखना, पांचवां पुष्प शांति, छठा पुष्प मन का निग्रह, सातवां पुष्प ध्यान और आठवीं पुष्प सत्य है। भगवान की पूजा अर्चना में इन आठों पुष्पों को समर्पण करने वाला मनुष्य सहज ही उनकी कृपा का पात्र बन जाता है।

पूजा में भावनाओं का बड़ा महत्त्व है। जिस साधक की जैसी भावना होगी, उसी के अनुरूप उसे पूजा का फल प्राप्त होगा। यदि भक्त पूजा में बैठा हुआ है, किंतु उसका मन सांसारिक कामनाओं-वासनाओं में उलझा हुआ है तो भला उसे पूजा का क्या फल प्राप्त होगा ? अतः पूजा करने से पूर्व पूजा करने वाला मन बनाना आवश्यक है, ताकि उस मन में निश्छल भाव पनप सके और
प्रभु उस मन में समा सकें। मलिन (कुविचारों से युक्त ) मन में भगवान का वास नहीं होता। पूजा में भगवान भक्ति और प्रेमपूर्वक अपने भक्त द्वारा अर्पित किये गए द्रव्यों को सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करते हैं। श्रीमद्भगवद गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी प्रकार का उपदेश देते हुए कहते हैं –
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥

अर्थात् जो भक्त श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल और जल आदि अर्पित करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेम से युक्त भक्त का अर्पित किया हुआ पत्र – पुष्प आदि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूं।

भगवान की पूजा करने से तात्पर्य स्वयं को भगवान के प्रति समर्पित कर देना ही है। वास्तव में पूजा में प्रयुक्त होने वाली सामग्री भी मनुष्य को इसी प्रकार के भाव प्रदान करती है। यदि भक्त अपने जीवन में पूजन सामग्री के गुणों को अपना ले तो उसका उद्धार हो सकता है, जैसे पुष्प दूसरों को सुगंध प्रदान करते हुए भी खिला (प्रसन्न ) रहता है, जल शीतलता और निर्मलता का
भाव देता है, नैवेद्य मधुरता का भाव, अक्षत अटूट निष्ठा प्रदान करता है, जबकि दीप स्वयं को जलाकर भी दूसरों को प्रकाशित करने की प्रेरणा देता है।

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