new born baby

पुनर्जन्म क्यों होता है और हिंदू धर्मग्रंथों में पुनर्जन्म की मान्यता क्यों है ?

आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार प्राणी का शरीर नश्वर है और शरीर में वास करने वाली आत्मा अजर-अमर है। सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। यदि प्राणी ने संसार में रहते हुए पुण्य कर्म अधिक किए हैं तो उसे अधिक पुण्यों का फल सृष्टि में अच्छी योनि (वृक्ष,पशु, पक्षी, मनुष्य आदि) और स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत पाप कर्म करने वाले प्राणी को बुरी योनि (कीड़े मकोड़े और निम्न कोटि के जीव आदि) तथा नरक की प्राप्ति होती है। इस प्रकार जब तक प्राणी अपने पूर्व -जन्म के पाप कर्मों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उसे जन्म पर जन्म लेने पड़ते हैं। पाप कर्मों से मुक्त होने पर ही आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है और तब आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है।

महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के वनपर्व में लिखा भी है कि शुभैः प्रयोगैर्देवत्वं व्यामिश्रैर्मानुषो भवेत् अर्थात् प्राणी यदि शुभ कर्म करे तो उसे देवताओं की योनि प्राप्त होती है और उसके कर्म पाप-पुण्य का मिला-जुला स्वरूप हो तो उसे मनुष्य की योनि मिलती है।

महर्षि पातञ्जलि भी अपने पातञ्जलि योगसूत्र में पुनर्जन्म को पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम बताते हुए इस प्रकार अपना मत प्रकट करते हैं-
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मनेदनीयः ।
सतिमूले तदिपाको जात्यामुर्भोगाः ॥

अर्थात् यदि किसी प्राणी के पूर्वजन्म के कर्म अच्छे हैं तो उसे उत्तम जाति, आयु और योग की प्राप्ति होती है। जब मनुष्य शरीर का त्याग कर मृत्यु को प्राप्त होता है तो उस जन्म का ज्ञान, कर्म और पूर्व प्रज्ञा आत्मा के साथ ही चली जाती है। इसी ज्ञान और कर्म के अनुसार जीवात्मा का पुनर्जन्म होता है और इसी के अनुसार उसके संस्कार नए जीवन में प्रकट होते हैं ।

कठोपनिषद् में भी ज्ञान और कर्म के आधार पर जीवात्मा के पुनर्जन्म की बात कही गई है। कठोपनिषद् के अनुसार-योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥

अर्थात् संसार में प्रत्येक जीवात्मा को उसके ज्ञान और कर्म के आधार पर ही शरीर धारण करने के लिए विशिष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार कोई अन्य जीवात्मा स्थावर भाव को प्राप्त करता है।

पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के फलों की व्याख्या करते हुए योगवाशिष्ठ में इस प्रकार कहा गया है-
एहिकं प्रोक्तनं वापि कर्म यदचित्तं स्फुरन् ।
पौरूषोऽसो परो यत्नो न कदाचन निष्फलः ॥

अर्थात् किसी भी जीवात्मा को पुनर्जन्म और इस जन्म में किए गये कर्मों का फल अवश्य मिलता है क्योंकि जीव को उसके द्वारा किए गये यत्नों का फल निष्फल नहीं जाता।

एक बार शतरूपा ने मनु महाराज से प्रश्न किया- “भगवन्! मनुष्य को अनेक योनियों में क्यों भटकना पड़ता है? कई बार ऐसा होता है कि योनि पाकर भी प्राणी मुक्त होने के स्थान पर पदच्यूत होकर रह जाता है। ऐसा क्यों होता है ?”

” भिन्न-भिन्न प्रकार के पाप कर्म प्राणी को विभिन्न योनियों में भटकाने का कारण बनते हैं।” मनु महाराज गंभीर वाणी में बोले- “जैसे शारीरिक पाप कर्मों के कारण जड़ योनियों में जन्म लेना पड़ता है, वाणी के पाप कर्मों से पशु-पक्षियों की योनियां मिलती हैं और मानसिक दोष संबंधी कर्मों से प्राणी को मनुष्य योनि से बहिष्कृत कर दिया जाता है। मनुष्य इस जन्म में अथवा पूर्व जन्म में किए जाने वाले पाप कर्मों के कारण ही अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप अवस्था को प्राप्त करते हैं । “

मनुष्य अपने जीवन में बहुत-सी अतृप्त कामनाओं और वासनाओं को समेटे रखता है। यही अतृप्ति अंततः उसके लिए पुनर्जन्म का कारण बनती यद्यपि मनुष्य पाप कर्म से बचता रहे, किंतु यदि उसके अंतर्मन में कामनाएं-वासनाएं उमड़ती रहें तो उसे मोक्ष की प्राप्ति न हो सकेगी और उसकी अतृप्त आत्मा भटकती रहेगी। इस बारे में महर्षि वसिष्ठ अपना मत इस प्रकार प्रकट करते हैं-
आशापाशा शताब्दा वासनाभाव धारिणः ।
कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद् वृक्षमिवाण्डजा ॥

अर्थात् यदि मनुष्य मन सैकड़ों कामनाओं – वासनाओं के बंधन में बंधा को प्राप्त करता है तो मृत्युपरांत उसकी आत्मा उन क्षुद्र कामनाओं-वासनाओं की पूर्ति करने वाली योनियों और शरीरों में उसी प्रकार चली जाती है, जिस प्रकार एक पक्षी फल की आशा में एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर उड़कर चला जाता है।

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को इसी प्रकार का उपदेश देते हुए कहते हैं-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥

अर्थात् हे अर्जुन ! मनुष्य अपने अंतकाल (मृत्यु के समय) में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, सदैव उसी भाव से भावित होने के कारण उस भाव को ही प्राप्त होता है।

पुनर्जन्म होने के बाद प्राय: पूर्व जन्म की आसक्ति का सर्वथा लोप हो जाता है और प्राणी अपने वर्तमान जीवन और उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं के मोह में बंध जाता है ।

जब महाराज प्रद्युम्न का स्वर्गवास हो गया तो उनके परिवारीजन अत्यंत शोकाकुल होने लगे। सभी निकट संबंधियों ने जिज्ञासा प्रकट की कि किसी प्रकार यह पता लगाया जाए कि महाराज प्रद्युम्न ने अब किस योनि में जन्म लिया है और अब उनकी क्या स्थिति है ।

उस काल में महर्षि कौत्स पुनर्जन्म विज्ञान के प्रखर विद्वान थे । उन्हें बुलाया गया। उन्होंने अपने ज्ञान-बल से यह जान लिया कि महाराज प्रद्युम्न ने इस बार काष्ठ-कीट के रूप में जन्म लिया है। यह बात उन्होंने महाराज के निकट संबंधियों को बताई ।

महर्षि कौत्स की बात सुनकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने यथास्थिति महाराज के इस जन्म – शरीर को अपनी आंखों से देखने की इच्छा प्रकट की ।

इस पर महर्षि कौत्स ने काष्ठ – कीट बने महाराज प्रद्युम्न को सम्मुख आकर दर्शन देने को कहा ।
काष्ठ-कीट की योनि में अब उनका छोटा-सा परिवार भी बन गया था। वे परिवार सहित प्रकट हो गए। जब उनके निकट संबंधियों ने उन्हें पकड़ने का प्रयत्न किया तो वे बोले – “मुझे मत छेड़ो । मैं अब इसी योनि में प्रसन्न हूं। नए जीवन के मोह ने मेरा पूर्व जीवन का मोह समाप्त कर दिया है। “

महर्षि कौत्स धीरे से बोले – “इनकी बात उचित ही है । सांसारिक संबंध शरीर रहने तक ही है। शरीर नष्ट हो जाने के बाद सब संबंध और माया-मोह नष्ट हो जाते हैं । “

परामनोवैज्ञानिक डॉक्टर रैना रूथ ने पदार्थ के भौतिक रूपांतरण को ही पुनर्जन्म का नाम दिया है । अपनी पुस्तक में वे लिखते हैं कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, भले ही किसी अन्य रूप में रूपांतरित हो जाए अथवा अदृश्य हो जाए। उनके अनुसार मनुष्य की मृत्यु के बाद भी डी. एन. ए. संस्कारों के रूप में अदृश्य अवस्था में रहते हैं परिवार में नया जन्म लेने के बाद ये फिर से प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अच्छे-बुरे संस्कार आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में मिलते हैं। दूसरे शब्दों में पूर्व जन्म के संस्कार ही पुनर्जन्म पर फलीभूत होते हैं।

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